नाम था उसका सुखलाल।पोपटी गाल.…झुर्रीदार चेहरा ,एक पुराना काला फटा -चिता कोर्ट ,चौड़ी मोहरी वाली पायजामा और आँखों में लटका ऐनक कुल यही थी कुल उसकी पहचान। अपने ऐनक के सबंध वह कहा करता था की एक बार गांधी जी के साथ सत्याग्रह में भाग ले रहा था ,तो बातों-बात में उनोहोने उनोहोने कहा था बापू तुम अपनी दृस्टि मुझे दे दो....उस समय बापू कुछ बोले नहीं उनहोंने अपना यह ऐनक देते हुए कहा सुखलाल अभी तो मैं तुम लोगों के दृस्टि का उपयोग कर रहा हूँ तुम्हारा बाह्र्य और आंतरिक दृश्टि ठीक है। तुम सब कुछ देख सकते हो !सोच सकते हो! हो सकता है एक दिन तुम्हारे बाह्र्य दृस्टि के लिए इसका जरुरत पर जाये। .लो इसे रख लो..... ।
मैं सकुचा गया और न चाहते हुए भी बापू की यह अमिट धरोहर रखा लिया। आज यही धरोहर मेरी दृस्टि बन गयी। नहीं तो जिसे दो बक्त का रोटी नसीब नहीं हो रहा वह भला एक ऐनक \कहां से खरीद पाता।
सुखलाल लाठी टेक कर चलता था और मांग मांगकर खाता था.
जब मैं पहली बार उससे मिला था तो उसकी उम्र ९० साल की थी शहर के चौराहे पर बैठा था आँखों हर आने जाने वालों को याचना भरी नजरों से देखता था लेकिन किसी से कुछ मांगता नहीं था। कुछ दयालु किस्म के लोग उसके आगे दो चार पैसे फ़ेंक देते थे जिस से वह किसी तरह गुजर कर लेता था।
मैं उस शहर में दो चार दिनों के लिए आया था। वापस आ रहा था तो सामने के बस स्टैंड पर खड़ा होकर बस का इंतज़ार कर रहा था। शाम के पांच बज चुके थे लेकिन कोई गाड़ी नहीं मिल रही थी। थक कर एक पेड़ के निचे चबूतरा पर बैठ गया। थड़ी दूर बैठा उस बृद्ध के दुर्भाग्य के बारे में सोच रहा था .... जरूर उसके बच्चे होंगे जो इस बृद्ध के बुढ़ापे का बोझ समझ कर निकल दिया होगा। आज-कल अक्सरहां ऐसी घटनाएँ होती है.
मैं मन हैं मन उस कृतघ्न बेटे -बेटी को कोश रहा था। धीरे -धीरे शाम घिरने लगी। मैं सोच रहा था अब घर वापस होने का बिचार त्याग कर वापस होटल में लौट जाऊं। तब तक वह बृद्ध उस चबूतरा के पास आकर बैतयह गया और भीख में मिले ७० पैसे गिन कर पैकेट में रखते हुए बुद -बुड़ाने लगा।
जिस बृद्ध को उस चुरहे पर भीख मंगाते देख कर उसके बारे में दो घंटा से उसके बारे में सोच रहा था उसे सामने पाकर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और उसके सामने बैठ करपुंछ बैठा ....
…बाबाआप का बीटा -बेटी नहीं है जो इस बुढ़ापें कष्ट कर रहे हो ……।
वह पहले मेरी ओर गौर से ऊपर निचे तक देखा। मैं पहली बार देखा उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी …. और दर्दों का अथाह सागर था।
वह कुछ देर मेरी और देखता रहा उसके आँखों के कोर भींग गए। मैं बारे गौर से अपने प्रश्नन से उस बृद्ध पर होने वाली प्रतिक्रिया का अध्य्यनं कर रहा था। बार-बार उसके चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे। हठात वह मुझे अपनी और घूरते हुए देख कर संभल गया.…आ ……हाँ बेटा है ना.…बहुत है..... कई है..... तुम सब तो मेरे अपने बचे हो ना।
मैं मतलब नहीं समझा बाबा आप सब कुछ सही बताओ ना।
किया करोगे जान कर बेटा … यह सब समय का दस्तूर है..... लेकिन मैं यह दुख भी हंस कर झेल लेता ,लेकिन लोंगो का यह तिरस्कार …… नफरत ,घृणा …उफ्ह कित्तना भयानक है यह सब।
कुछ देर रुक कर वह घरी साँस ली फ्हिर कहने लगा ....काश। उसी समय दफ़न हो गया होता .... लेकिन इस अधम को तो यह सब भोगना था। यह सब कहते हुए उसकी आँखों से आसुओं की धार बहने लगी।
मैं उस बृद्ध की इस रहस्यतमक बातों में कफ्ही उलझ गया। उस बृद्ध की अतीत जानने की उत्सुकता बढ़ती गयी। ठीक उसी समय मेरी बस आ गयी उसके बारे में और अधिक जानकारी पाने की उत्सुकता के बाबजूद मैं अपने पैकेट से ५० रूपये का एक नोट उसे थमते हुए बस पर जा बैठा।
उस दिन मैं वहां से तो वापस आ गया लेकिन उस बृद्ध के बारे में और अधिक जानने की ब्यग्रता बढ़ती गयी। बार -बार मेरे मानस पटल पर उस दर्द से डूबा चेहरा ,आँखों से ढुलकते आंसू और मेरे प्रस्न से होने वाली प्रतिक्रिया का चित्र उभर रहा था। एक सप्ताह बाद पुनः मैं उस शहर जाकर उस बृद्ध से मिला और उसके बारे नमें जानकारी हासिल किया। उसका अतीत दर्दों से भरा हुआ था। वह बृद्ध न जाने कइयों मुझ से प्रभाबित हुआ और अपना पूरा अतीत खोल कर मेरे सामने रख दिया।
सन १९३६ में उसने आजादी की जंग लड़ी थी। उसी बर्ष जब वह जेल में था उसकी गर्भबती पत्नी भूख और अभाव से कल कवलित हो गयी थी मन ौिर बाप पहले गुजर गए थे जब वह जेल से छूट कर आया तो एक किशोर बेटा और बेटी रह गए थे उसके पत्नी का बिछुरना उसके लिए भयानक त्रासदी थी इसके वाबजूद उसने हौसला नहीं खोया गुलामी की जंजीर तोड़ने के लिए सब कुछ लुटाने के लिए तैयार था दोनों किशोर बच्चे भी पिता के पद चींन्हों पर चल परे। फिर किया किया-किया सितम न ढाये गए इस परिवार पर उसका बृतान्त सुन कर मैं हतप्रभ रह गया।
गांधी का सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था। सुखलाल गांधी के इस आंदोलन में भाग ले रहे थे उस समय उसका लक्ष्य था सत्य अहिंसा के बल पर भारत से बिदेशी हुकूमत को उखाड़ फेकना। लेकिन सुखलाल के दोनों बच्चों को सत्य अहिंसा के सिद्धांत पर भरोसा नहीं था दस्ता की जंजीर तोरने के लिए वे उग्र आंदोलन में भाग लेने लगे। दोनों किशोर बच्चे अपने हम उम्र बच्चों को साथ लेकर आंदोलन की रह पर उतर पड़े
मैं मन हैं मन उस कृतघ्न बेटे -बेटी को कोश रहा था। धीरे -धीरे शाम घिरने लगी। मैं सोच रहा था अब घर वापस होने का बिचार त्याग कर वापस होटल में लौट जाऊं। तब तक वह बृद्ध उस चबूतरा के पास आकर बैतयह गया और भीख में मिले ७० पैसे गिन कर पैकेट में रखते हुए बुद -बुड़ाने लगा।
जिस बृद्ध को उस चुरहे पर भीख मंगाते देख कर उसके बारे में दो घंटा से उसके बारे में सोच रहा था उसे सामने पाकर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और उसके सामने बैठ करपुंछ बैठा ....
…बाबाआप का बीटा -बेटी नहीं है जो इस बुढ़ापें कष्ट कर रहे हो ……।
वह पहले मेरी ओर गौर से ऊपर निचे तक देखा। मैं पहली बार देखा उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी …. और दर्दों का अथाह सागर था।
वह कुछ देर मेरी और देखता रहा उसके आँखों के कोर भींग गए। मैं बारे गौर से अपने प्रश्नन से उस बृद्ध पर होने वाली प्रतिक्रिया का अध्य्यनं कर रहा था। बार-बार उसके चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे। हठात वह मुझे अपनी और घूरते हुए देख कर संभल गया.…आ ……हाँ बेटा है ना.…बहुत है..... कई है..... तुम सब तो मेरे अपने बचे हो ना।
मैं मतलब नहीं समझा बाबा आप सब कुछ सही बताओ ना।
किया करोगे जान कर बेटा … यह सब समय का दस्तूर है..... लेकिन मैं यह दुख भी हंस कर झेल लेता ,लेकिन लोंगो का यह तिरस्कार …… नफरत ,घृणा …उफ्ह कित्तना भयानक है यह सब।
कुछ देर रुक कर वह घरी साँस ली फ्हिर कहने लगा ....काश। उसी समय दफ़न हो गया होता .... लेकिन इस अधम को तो यह सब भोगना था। यह सब कहते हुए उसकी आँखों से आसुओं की धार बहने लगी।
मैं उस बृद्ध की इस रहस्यतमक बातों में कफ्ही उलझ गया। उस बृद्ध की अतीत जानने की उत्सुकता बढ़ती गयी। ठीक उसी समय मेरी बस आ गयी उसके बारे में और अधिक जानकारी पाने की उत्सुकता के बाबजूद मैं अपने पैकेट से ५० रूपये का एक नोट उसे थमते हुए बस पर जा बैठा।
उस दिन मैं वहां से तो वापस आ गया लेकिन उस बृद्ध के बारे में और अधिक जानने की ब्यग्रता बढ़ती गयी। बार -बार मेरे मानस पटल पर उस दर्द से डूबा चेहरा ,आँखों से ढुलकते आंसू और मेरे प्रस्न से होने वाली प्रतिक्रिया का चित्र उभर रहा था। एक सप्ताह बाद पुनः मैं उस शहर जाकर उस बृद्ध से मिला और उसके बारे नमें जानकारी हासिल किया। उसका अतीत दर्दों से भरा हुआ था। वह बृद्ध न जाने कइयों मुझ से प्रभाबित हुआ और अपना पूरा अतीत खोल कर मेरे सामने रख दिया।
सन १९३६ में उसने आजादी की जंग लड़ी थी। उसी बर्ष जब वह जेल में था उसकी गर्भबती पत्नी भूख और अभाव से कल कवलित हो गयी थी मन ौिर बाप पहले गुजर गए थे जब वह जेल से छूट कर आया तो एक किशोर बेटा और बेटी रह गए थे उसके पत्नी का बिछुरना उसके लिए भयानक त्रासदी थी इसके वाबजूद उसने हौसला नहीं खोया गुलामी की जंजीर तोड़ने के लिए सब कुछ लुटाने के लिए तैयार था दोनों किशोर बच्चे भी पिता के पद चींन्हों पर चल परे। फिर किया किया-किया सितम न ढाये गए इस परिवार पर उसका बृतान्त सुन कर मैं हतप्रभ रह गया।
गांधी का सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था। सुखलाल गांधी के इस आंदोलन में भाग ले रहे थे उस समय उसका लक्ष्य था सत्य अहिंसा के बल पर भारत से बिदेशी हुकूमत को उखाड़ फेकना। लेकिन सुखलाल के दोनों बच्चों को सत्य अहिंसा के सिद्धांत पर भरोसा नहीं था दस्ता की जंजीर तोरने के लिए वे उग्र आंदोलन में भाग लेने लगे। दोनों किशोर बच्चे अपने हम उम्र बच्चों को साथ लेकर आंदोलन की रह पर उतर पड़े
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