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नसीमा बाजी अपने दफ्तर में बाहर से आकर बैठा ही था तभी हड़बड़ाये हुए अख्‍तर आया । उसकी आँखे सुजी हुई थी और होशो-हवाश गुम थे । वह आते ही बोला- ‘भाई साहब' नसीमा बाजी नहीं रही । हम लोगो को छोड़कर चली गई। इंतकाल के पहले न जाने वह क्‍यों आप से मिलना चाहती थी । बार बार आपका जिक्र कर रही थी । शायद आपसे कुछ कहना चाहती थी । ‘क्‍या .... ? गहरा आघात लगा था मुझे । मैं इस शब्‍द के आगे कुछ कह भी न पाया था । गला भर आया मेरा और अनायास आंखों के कोर भींग गए । मेरी आंखों के सामने नसीमा का भोला - भाला चेहरा घूमने लगा । उसकी खिलखिलाहट, उसका चिहुंकना और कभी- कभी गम्‍भीर हो जाना, मौका बे मौका हर समस्‍याओं पर बेवाक सलाह लेना । नसीमा मुझे अपना धर्म भाई बना ली थी । और भाई से ज्‍यादा मैं उस पर अभिभावक का हक रखता था । छोटी-छोटी गलतियों पर डपट भी दिया करता था । वह कभी कभी सहम भी जाती थी और फिर मुझे खुश करने के लिए बच्‍ची की तरह हरकत करने लगती थी । मेरा सारा गुस्‍सा काफूर हो जाता था । वह लगती भी प्‍यारी गुड़िया की तरह थी । नसीमा से मेरा परिचय निहाल ने कराया था । उन दिनों बी.ए. का छात्र था । इंटर में दाखिल
वह बरगद  पेड़   गांव के बीच का  वह बरगद का पेड़  उदास है आज।  कभी ----- गांव के अच्छे -बुरे  बक्तों का इतिहास  बुनता रहा है वह पेड़।  जुम्मन और अलगु की  दोस्ती का गबाह  गिरिजा और गुरुद्वारों में  समन्यब्यता  का सूत्रधार  आज बिस्मित है  वह पेड़ ---------- शाम की गोधूलि बेला  में  नहीं जमता है वहां  कोई चौपाल  ईद और दिवाली पर  नहीं बांटती है  वहां मिठाइयां  ग्रीष्म की चांदनी रातों में  नहीं बिछती है वहां  अब------------- अगल -बगल  में  जुम्मन और अलग की चारपाइयां  आखिर कियों। …? वह बरगद का पेड़  नहीं समझ प् रहा है  कइयों बढ़ गयी है  यह दूरियां   
कबिता   १  रेगिस्तान के रेत पर  दूर तक  फैला हुआ  रेगिस्तान .... .  उस रेगिस्तान में  कभी करकती धूप  में  उमस ज्वाला  कभी सर्द रातों में  ठिठुरती   ठण्ड  उफ़.………  उत्पीिरत  हम  ब्यथित हो  बहा रहें हैं आंसुओं की धार   ०००  बहुत दिनों तक  बेदना की बोझा ढोकर  उस रेगिस्तान में  आगे की ओर बढ़ता रहा ठिठुरती    सर्द  में धधकती आग में  हंसकर जलता रहा।  ०००  आँखों के आंसू सुख गए  क्योंकि ------- पानी की जगह हमने  आंसुओं का पण किया  अपना हैं मांस खाकर  जीबन का परतरं किया।  ०००  रेगिस्तान के रेत पर  दुख और बेदना का बोझा रखकर  तिनका चूना -- तयिनका चून -चून कर  सपनो का महल बनाया परन्तु--------- एक हवा का झोंका आकर  उस महल को तोर दिया  ०००  अब हम----------  उस रेगिस्तान में  टूटे हुए खण्डरों के पास  बैठा हूँ ------- वह हवा उधर से लौटेगी  तो--------------------  अपना महल मांग लूंगा ०००००        
कहानी  सुखलाल  ना म था उसका सुखलाल।पोपटी गाल.…झुर्रीदार चेहरा ,एक पुराना  काला  फटा -चिता कोर्ट ,चौड़ी  मोहरी वाली पायजामा और आँखों में लटका ऐनक कुल यही थी कुल उसकी पहचान। अपने  ऐनक  के सबंध वह कहा करता था की एक बार गांधी जी के साथ सत्याग्रह  में भाग ले रहा था ,तो बातों-बात  में उनोहोने  उनोहोने कहा था बापू तुम अपनी दृस्टि मुझे दे दो....उस समय बापू  कुछ बोले नहीं उनहोंने अपना यह  ऐनक  देते हुए कहा सुखलाल अभी तो मैं तुम लोगों के दृस्टि का उपयोग कर रहा हूँ तुम्हारा बाह्र्य और आंतरिक दृश्टि   ठीक है। तुम सब कुछ देख सकते हो !सोच सकते हो! हो सकता  है एक दिन तुम्हारे  बाह्र्य   दृस्टि  के लिए इसका जरुरत पर जाये। .लो  इसे  रख लो..... ।        मैं सकुचा गया और न चाहते हुए भी बापू की यह अमिट  धरोहर रखा लिया। आज यही धरोहर मेरी दृस्टि बन  गयी। नहीं तो जिसे दो बक्त का रोटी नसीब नहीं हो रहा वह भला एक ऐनक \कहां  से खरीद पाता।  सुखलाल लाठी टेक कर चलता था और मांग मांगकर खाता था. जब मैं पहली बार उससे मिला था तो उसकी उम्र ९० साल की थी  शहर के चौराहे पर बैठा था आँखों  हर आने