Friday, 29 April 2011

शहर ! - विनोद आनंद



इस शहर में
अकुलाहट और भागम दौड़ से 
थका हुआ सा 
जब एक चौराहे पर रुकता हूँ
तो -----
हडबडाया सा एक भीड़ गुजर जाती है 
मेरे सामने से 
देखता हूँ 
उस भीड़ में
वह भाई जा रहा है मेरा 
जो मुझे बहुत प्यार करता था 
और -----
जिसे तलाशते हुए मैं
इस शहर आ पहुंचा था 
हाँ ! वह मेरा प्यारा भाई 
मैं उसे रोकता हूँ 
और बताता हूँ 
मेरे प्यारे भाई 
मैं तुम्हारे लिए गाँव से आया हूँ
तुम्हारे बिना गाँव उदास है
शाम की वह गोधुली बेला 
और आनंददायक चांदनी रातें 
खेतों की मिटटी की सौंधी महक 
और -----
सरसराती हवाएं बार-बार तुम्हे याद कर रही है 
वह पहले मेरे तरफ देखता है 
फिर ---------------
मुह सिकुड़ता और आँखें फेर लेता 
उस भीड़ के साथ आगे बढ़ जाता है
मैं अवाक्-सा खड़ा देखता रह जाता हूँ 
उस चौराहे पर खड़े देखता हूँ 
मुझे गोद में खेलाने वाले बाप 
और अत्यधिक प्यार करने वाले सगे-सम्बन्धी गुजर गए 
अपरचित और अजनबी सा
यहाँ तक कि वो प्रेयसी भी 
जिसके गेसुए में मैंने कभी अंगुली पिरोया था 
जिसका स्नेहिल स्पर्श कि सुखद अनुभूति 
और -------
लहलहाते हरे भरे खेतों के बीच 
जीवन-मरण साथ निभाने का वादा
अभी भी भुला नही पाया हूँ 
वह भी इस भीड़ में गुजरती हुई 
अजनबी सी चली जाती है 
मैं बेबस -------------------
इस बेगानेपन से भयभीत फफक पड़ता हूँ 
और पूछता हूँ अपने आप से
यह शहर इतना बेगाना क्यों है ?
यहाँ शिर्फ़ हृदयहीन लोग ही बसते हैं 
और भूल  जाते हैं आदमियता 
लेकिन
मेरा यह सवाल 
चिंघाड़ती मशीनों कि आवाज 
पों-पों  करती मोटर-कार
और---------------
खटर-पटर करती 
कार्यालयों के टाइपराइटरों की ध्वनि 
के बीच
गुम हो जाती है |

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