Saturday, 16 August 2014

कबिता 

१ 

रेगिस्तान के रेत पर 

दूर तक 
फैला हुआ 
रेगिस्तान .... . 
उस रेगिस्तान में 
कभी करकती धूप  में 
उमस ज्वाला 
कभी सर्द रातों में
 ठिठुरती   ठण्ड 
उफ़.……… 
उत्पीिरत  हम 
ब्यथित हो
 बहा रहें हैं आंसुओं की धार  

००० 
बहुत दिनों तक 
बेदना की बोझा ढोकर 
उस रेगिस्तान में 
आगे की ओर बढ़ता रहा
ठिठुरती  सर्द  में
धधकती आग में 
हंसकर जलता रहा। 
००० 
आँखों के आंसू सुख गए 
क्योंकि -------
पानी की जगह हमने 
आंसुओं का पण किया 
अपना हैं मांस खाकर 
जीबन का परतरं किया। 
००० 
रेगिस्तान के रेत पर 
दुख और बेदना का बोझा रखकर
 तिनका चूना --
तयिनका चून -चून कर 
सपनो का महल बनाया
परन्तु---------
एक हवा का झोंका आकर 
उस महल को तोर दिया 

००० 
अब हम----------
 उस रेगिस्तान में 
टूटे हुए खण्डरों के पास 
बैठा हूँ -------
वह हवा उधर से लौटेगी
 तो--------------------
 अपना महल मांग लूंगा


०००००    
   

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