Thursday, 21 August 2014

नसीमा बाजी
अपने दफ्तर में बाहर से आकर बैठा ही था तभी हड़बड़ाये हुए अख्‍तर आया । उसकी आँखे सुजी हुई थी और होशो-हवाश गुम थे । वह आते ही बोला- ‘भाई साहब' नसीमा बाजी नहीं रही । हम लोगो को छोड़कर चली गई। इंतकाल के पहले न जाने वह क्‍यों आप से मिलना चाहती थी । बार बार आपका जिक्र कर रही थी । शायद आपसे कुछ कहना चाहती थी ।
‘क्‍या .... ? गहरा आघात लगा था मुझे । मैं इस शब्‍द के आगे कुछ कह भी न पाया था । गला भर आया मेरा और अनायास आंखों के कोर भींग गए । मेरी आंखों के सामने नसीमा का भोला - भाला चेहरा घूमने लगा । उसकी खिलखिलाहट, उसका चिहुंकना और कभी- कभी गम्‍भीर हो जाना, मौका बे मौका हर समस्‍याओं पर बेवाक सलाह लेना । नसीमा मुझे अपना धर्म भाई बना ली थी । और भाई से ज्‍यादा मैं उस पर अभिभावक का हक रखता था । छोटी-छोटी गलतियों पर डपट भी दिया करता था । वह कभी कभी सहम भी जाती थी और फिर मुझे खुश करने के लिए बच्‍ची की तरह हरकत करने लगती थी । मेरा सारा गुस्‍सा काफूर हो जाता था । वह लगती भी प्‍यारी गुड़िया की तरह थी ।
नसीमा से मेरा परिचय निहाल ने कराया था । उन दिनों बी.ए. का छात्र था । इंटर में दाखिला ली थी । निहाल भी मेरे साथ ही पढ़ता था । नसीमा को निहाल ने ही इस कालेज में दाखिला दिलाया था । दोनों पूर्व परिचित थे और वे दोनों एक दूसरें को चाहते भी थे । जब पहली बार मैं नसीमा से मिला था तो वह कालेज कॉमन रुम में गूमसुम बैठी थी । काफी गम्‍भीर लगी थी मुझे । निहाल ने जब परिचय कराया तो उसके हाथ जुड़ गए थे। वह कुछ बोली नहीं थी पहली मुलाकात में बस मुस्‍करा कर रह गई थी । इसके बाद एक - आध और मुलाकातें हुई । मैं औपचारिकता निभाते हुए पूछ लेता था - ‘तुम ठीक तो हो पढ़ाई - लिखाई चल रही है कि नहीं ' । वह मुस्‍करा कर जबाब दे देती और आगे बढ़ जाती थी ।
एक दिन पुस्‍तकालय में बैठा मै किताब पलट रहा था । उस समय कालेज के एक डिबेट की मै तैयारी कर रहा था । अब तक डिबेट में मैं प्रथम स्‍थान प्राप्‍त करता आ रहा था । विश्‍वास था इस बार भी मेरा एकाधिकार रहेगा । पुस्‍तकालय में उसी समय मेरी कक्षा की एक लड़की शिल्‍पा आई । मेरे सामने आगे की कुर्सी पर बैठ गई । मैं समझ गया शिल्‍पा कुछ प्रयोजन से ही आई है इसलिए बिना किसी भूमिका के मैं पूछ बैठा - ‘कहो क्‍या बात है ?'‘मैं सोच रही हूं इस बार डिबेट में तुम्‍हारे एकाधिकार को तोड़ा जाय । क्‍यों? ठीक रहेगा न ।'
‘ठीक तो रहेगा । लेकिन यह बीड़ा उठायेगा कौन ? मैने बड़े लापरवाही से कहा । ‘उठायेगा नहीं, उठायेगी ।' वह मुस्‍कराने लगी थी । ‘कौन ?‘मैं ठहाका लगा कर हंस दिया था । क्‍योंकि मैं जानता था शिल्‍पा भले ही मुझसे बेवाक होकर बातचीत कर ले, लेकिन भीड़ के सामने वह खड़ी भी नहीं हो सकती थी । लेकिन मेरे ठहाके पर वह कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की यथावत मुस्‍कराती रही फिर मेरे शांत होने पर बोली ... ‘मैं नहीं ! नसीमा!'
‘नसीमा ' मै अवाक रह गया था । जो लड़की ज्‍यादा बोलती नहीं , गुमसुम रहा करती है वह भला कालेज वाद - विवाद में भाग लेगी । तब तक नसीमा लाइब्रेरी में गेट पर रखी आलमारी की आड़ से निकल कर बाहर आ गई। वह शायद शिल्‍पा के साथ आई थी और छिपकर हमलोगो की बात सुन रही थी । मैने नसीमा को देखकर कहा ।
‘अरी !तूम छिपकर क्‍यों खड़ी हो ? आओ सामने तो बैठो ।
‘जी', वह घबरा रही थी । फिर बोलने लगी । भाई साहब ! मैं तो डिबेट में भाग नहीं लेना चाहती थी, लेकिन शिल्‍पा दीदी .. शिल्‍पा आंखे तरेरने लगी । तो वह खामोश हो गई । नसीमा की इस मासूमियत पर मुझे हंसी भी आई और तरस भी । मैनें शिल्‍पा को डपटते हुए कहा .... ‘क्‍यों मेरी मासूम बहन को डराती हो । देखो तो बेचारी कितनी सहम गई । शिल्‍पा हंसने लगी ... ' इसे कम न समझों ! अरी तू खुद न कही थी कि मैं अगर डिबेट में भाग लूंगी तो मैदान मार लूंगी । फिर ....'
फिर तो यह अच्‍छी बात है । मैं कह रहा हूं नसीमा तू जरुर भाग लेगी । प्रतियोगिता में हार - जीत कोई मायने नहीं रखता है और फिर तू अगर मैदान मार लेती है तो मुझे बहुत खुशी होंगी । मै समझूंगा मेरी गुमसुम रहने वाली नसीमा वाजी बोलती भी है । ‘मै यह बात उस वक्‍त खुशी दिल से कह दिया था । मेरे मन में किसी तरह का मैल नहीं था । '
नसीमा आर्द्र हो गई । ....... ‘भैया मैं आप का आशीर्वाद लूंगी तभी प्रतियोगिता में भाग लूंगी ।
‘अरी पगली ! मेरा आशीर्वाद तो हमेशा तुम्‍हारे साथ है । 'नसीमा शिल्‍पा के साथ उठकर चली गई । मैं घंटो बैठकर नसीमा के बारे में सोचता रहा । कितना निःश्‍चल है नसीमा का हृदय । वह प्रतियोगिता में मरा प्रतिद्वन्‍द्वी तक बनना नहीं चाहती है । मैं नसीमा को अपनी बहन के रुप में देखने लगा था । फिर मैं न जानें क्‍यों डिबेट के प्रति उदासीन होता गया । और जिस दिन डिबेट हुआ तो मैं आत्‍मविभोर ही हो गया । नसीमा इतना अच्‍छा बोल सकती है मुझे पहली बार आभास हुआ । भाषा में ओजता, शुद्ध उच्‍चारण , और विषय वस्‍तु में प्रवाह । नसीमा इस डिबेट में प्रथम स्‍थान पर रही । मुझे दूसरा स्‍थान मिला । एक परम्‍परा टूट गयी जो मैं विगत तीन वर्षो से ढोता आ रहा था । इस प्रतियोगिता का इसलिए भी महत्‍व था कि उसमें विजित प्रतियोगी को बिहार के राज्‍यपाल द्वारा पुरस्‍कृत किया जाना था ।
डिबेट के बात परिणाम आने पर जब मैं नसीमा को बधाई देने उसके कॉमन रुम पहुंचा तो वह बहुत खुश थी । मैं पहली बार उसे इतना प्रफुल्‍लित देखा था । जाते ही वह बोली - ‘अगर आप मेरी हिम्‍मत नहीं बढ़ाते तो वाकई मैं इतना साहस नहीं जुटा पाती । यह सब आप .........
‘अरे रहने दो। तुम में इतना कुछ था और छिपाकर रखी थी तू । आज से मैं तुम्‍हें हमेशा यूं ही चहकते हुए देखना चाहता हूं ।'
‘जी'!वह मुस्‍करा दी थी ।
इसके बाद नसीमा हमेशा प्रफुल्‍लित रही । मुझसे घुल- मिल भी बहुत ज्‍यादा गई । कभी नोट्‌स के बहाने, कभी गाइडेन्‍स के बहाने, और कभी किसी समस्‍या केा लेकर । नसीमा से मेरा स्‍नेह बढ़ता गया । वह पूर्ण रुप से मुझे अपना भाई और अपना हमदर्द समझने लगी थी । हमलोगों की इस घनिष्‍ठता से निहाल कभी काल हंस कर कोमेंट भी कर लेता लेकिन हमलोग उसे माकूल जवाब देकर चुप कर देते थे ।
समय तीव्र गति से बढ़ता गया और समय के साथ रिश्‍ते भी प्रगाढ़ होते गए । एक दिन मै पुस्‍तकालय के छत पर बैठा था । बीच में दे कक्षा गेप थी । ठंडा का समय था । इसलिए धूप कुछ अच्‍छी लग रही थी । तभी नसीमा बाजी मुझे खोजते - खोजते आई । चेहरा उखड़ा हुआ था । आंखे सुजी हुई थी । मुख पर घोर विषाद था । लग रहा था वह रात भर रोई है। वह आकर मेरे सामने गुमसुम खड़ी हो गई । मैं उसकी हालत देख अवाक रह गया । सामने पड़ी बेंच पर बैठने का संकेत किया । वह चुपचाप बैठ गई । मैं जिज्ञासा से उसकी ओर देखने लगा कि क्‍या कहना चाहती है । लेकिन वह कुछ बोली नहीं । चुपचाप सिर झुकाए बैठी रही । आखिर चुप्‍पी मुझे ही तोड़नी पड़ी ............... ‘क्‍या बात है नसीमा । तेरा यह हाल , तू ठीक तो है । '
वह सिर उठाकर मेरी ओर देखी उसकी बड़ी - बड़ी आंखों में एकाएक जल प्‍लावन हुआ और अविरल अश्रु बहने लगे । वह फफक कर रोने लगी , वह रोती जा रही थी ।
एकाएक मैं नसीमा का यह हाल देखकर दहल गया । ‘अरी कुछ बताओ तो सही । क्‍या हुआ?किसी ने तुझसे कुछ कहा ? घर में सब खैरियत तो है ... उफ बोलती क्‍यों नहीं ?
‘मै छली गई भाई साहब । मेरे सारे सपने बिखर गए । मैं .. मैं अब जीना नहीं चाहती .. मैं , और .. वह फफक -फफक कर रो पड़ी ।
‘आखिर क्‍यों ...? बताओ तो सही । क्‍या हुआ मेरी बहन को कि जीना नहीं चाहती । '
‘निहाल ने मेरे साथ वेवफाई की वह घर वालों के दबाब में है । वह दूसरी जगह शादी कर रहा है । मै उसे बहुत चाहती हूं भाई साहब । मैं उसके बगैर नहीं जी सकती । मै क्‍या करुं ।'
मुझे नसीमा के इस बात पर यकीन नहीं हुआ । निहाल भी उसे दिलों जान से चाहता था । फिर वह नसीमा के साथ ऐसा क्‍यों करेगा । मैने उसे आश्‍वस्‍त करते हुए कहा ... ‘अरी पगली ' तू इत्ती सी बात के लिए मर जाना चाहती है । इतनी कमजोर है तू । जीवन में तो लोग परिस्‍थितियों से जूझ कर भ सहज रहते है । और तू .. फिर तो तू बहादुर लड़की है । ठीक है तू इत्‍मीनान रख मै। आज ही निहाल से बात करता हूं ।'वह उठकर जाने लगी । मैने उसे टोका - पहले ये आंसू तो पेांछ ले, भला तुम्‍हारी सहेलियां क्‍या कहेगी । वह अपने दुपट्टा से आंसू पोंछ ली और तेजी से पुस्‍तकालय के छत की सीढ़ी से उतरने लगी ।
मैं कुछ देर बैठ कर सोचता रहा । अगर यह बात सच है तो निहाल से कैसे निपटा जाय । काफी सोच- विचार के बाद ज्‍योंही मैं पुस्‍तकालय से बाहर निकला उधर से निहाल को आते देखा । मैने निहाल को खींच कर एकांत में लाया, स्‍थिति की जानकारी दी तथा उसे समझाया कि ..... ‘किसी लड़की की भावना के साथ खिलवाड़ करना ठीक नहीं है । वह बहुत संवेदनशील लड़की है कुछ कर बैठेगी । '
निहाल ने अपने पिता की जिद्, मां द्वारा दूसरी लड़की पसंद करने की बात तथा माता एवं पिता की भावनाओं के प्रति अपनी वफादारी का इजहार किया और अपनी मजबूरी जतायी । उसने यह भी दलील दी कि नसीमा बिल्‍कुल पाक है, मैने उसे चाहा जरुर आज भी चाहता हूं लेकिन कभी कोई ऐसी हरकत मैने नहीं की जिससे वह दूसरी जगह शादी नहीं कर सकती । मैनें निहाल के साथ कई सिटिंग की, लेकिन बात नहीं बनी । इस बीच निहाल के पिता का स्‍थानांतरण दूसरी जगह हो गया और निहाल ने अपने गांव जाकर शादी भी कर ली ।
नसीमा इस गम में हमेशा गुमसुम रहने लगी । वह कालेज आती थी और चुपचाप क्‍लास करक चली जाती थी । इसी बीच कई बार नसीमा से मेरी मुलाकात हुई लेकिन उसकी उदासी दूर करने की लाख कोशिश के बावजूद मैं उसे हंसते कभी नहीं देखा । जब मैं उसे हंसाने की कोशिश करता तो उसकी आंखे डबडबा जाती थी । उसका यह हाल देखकर मुझे बहुत दुःख होता था । फिर मैं गंभीर होकर उसे समझाने लगता था । इस बीच बी ऐ की फाइनल परीक्षा हो गई । मैं कालेज से निकल गया । एक दिन खबर आई कि नसीमा की शादी की बात चल रही है । मुझे कुछ तसल्‍ली मिली । चलो अब नसीमा इस गम को भूल जाएगी । धीरे-धीरे वह सामान्‍य हो जाएगी । फिर एक दिन नसीमा की शादी का कार्ड भी आया । शादी के दो दिन पहले मैं नसीमा को मुबारकबाद देने गया । मुझे पूरा यकीन था । नसीमा अब खुश होगी । लेकिन जब मैं नसीमा के कमरे में दाखिल हुआ तो दंग रह गया । उसकी हालत दिन - प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी । मैने ज्‍योंही कमरे में कदम रखा वह मुझे देखकर सहज होने की कोशिश करने लगी । शायद कुछ देर पहले ही वह रोयी थी जिसके कारण उसकी आंखें फूली हुई थीं । मैनें उसे समझाया फिर सेहत पर ख्‍याल रखने की ताकीद दी । चाय -पानी के बाद ज्‍योंही मैं चलने को हुआ तो वह छोड़ने दरवाजे तक आई । आते - आते उसने इतने दिनों के बाद प्रथम बार वह मुस्‍कराई । लेकिन उसकी इस मुस्‍कराहट के पीछे छिपा विषाद स्‍पष्‍ट परिलक्षित हो रहा था । आते-आते वह कहने लगी .. ‘शादी के मौके पर जरुर आइएगा' फिर वह चुप हो गई । कुछ कदम आगे बढ़ने के बाद हाथ में दुपट्टा को उमेठते हुए कहने लगी ... ‘न जाने क्‍यों लगता है जैसे मैं किसी शून्‍य में भटक रही हूं । हो सकता है आप फिर मुझे ने देखें ',
‘ऐसा नहीं कहते पगली । तुम वहां खुशहाल रहोगी । यह तुम्‍हारे इस अभागे भाई की दुआ है । '
वह फिर गंभीर हो गई । मैं उसके घर से निकला तो नसीमा का भाई और उसकी मां गेट तक छोड़ने आये । और शादी में आने के लिए आग्रह किया । न जाने क्‍यों उस घर से निकलने के बाद मुझे आज पहली बार अहसास होने लगा कि कोई बहुत करीबी मुझसे बिछुड़ रहा है । मैंने आज पहलीबार यह महसूस किया कि मैं नसीमा को अपने करीब देखना चाहता हूं । इस भावना को मैं क्‍या संज्ञा दूं , मैं खुद नहीं समझ पा रहा था । अचानक मेरी आंखों से अश्रुकण ढुलक पड़े । मैने तेज कदमों से वहां से निकल कर बस पकड़ ली । उसके बाद शादी के मौके पर भी नहीं जा सका ।
नसीमा की शादी के एक वर्ष बाद उसका एक पत्र मिला । वह पत्र उसने ससुराल से लिखा था । मैं खुश हूं । लेकिन आपलोग तो भूल ही चुके है । उस पत्र में उसने एक पुत्री को जन्‍म देने की सूचना दी । मुझे वह पत्र पाकर अत्‍यधिक प्रसन्‍नता हुई । मैने पत्रोत्तर देकर शुभकामना भेज दी तथा सदा खुश रहने के लिए लिख दिया । इस बीच एक वर्ष तक पुनः कोई सूचना नहीं मिली ।एक दिन शादी के ढाई साल बाद नसीमा का भाई मिला । नसीमा के बारे में पूछ - ताछ करने पर बताया कि वह बहुत बीमार है और इस वक्‍त यहीं है । आपको बुलाने को भी कह रही थी । यह संवाद सुनकर मै अपने आप को रोक नहीं सका । नसीमा से मिलने उसी वक्‍त चल पड़ा । अपने कमरे में नसीमा बेड पर पड़ी थी । एक नजर में मै तो उसे पहचान नहीं पाया । कृशकायः शरीर, मात्र कंकाल का ढांचा , आंखे धंसी हुई माथे के आधे बाल उड़े हुए वह उठने -बैठने में भी असक्षम थी । मैं अवाक रह गया । विश्‍वास ही नहीं हुआ क्‍या यह वही नसीमा है जो गुड़िया की तरह चहकती रहती थी । जिसका भरा चेहरा और सुंदर मुखड़ा अनायास किसी को आकर्षित कर लेता था । मैं नसीमा के सिरहाने बैठ गया । नसीमा का हाल देखकर मेरी रुह कांप गई । नसीमा ने आंखे खोलकर पहले मेरी तरफ देखकर पहचानने की कोशिष की फिर पहचान कर आंख मूंद ली और टपटप उसकी आंखों से आंसू बहने लगे । नसीमा की मां और भाई आकर खड़े हो गए थे । बेटी की हाल देखकर नसीमा की मां भी रोने लगी । मैने जेब से रुमाल निकाल कर आंसू पोंछ दिया और उसके माथा पर हाथ फेरते हुए कहा .. ‘नसीमा धैर्य रख , सब ठीक हो जाएगा , ... सब ठीक हो जाएगा नसीमा । ‘मेरा भी गला भर आया । और आवाज भर्रा गई ।
नसीमा किसी तरह बोली ... ‘ अब कुछ ठीक नहीं होगा भाई साहब । मैं नेहा को छोड़कर जा रही हूं । बस आप लोग इसका ख्‍याल रखना ।
‘तुम्‍हें कुछ नहीं होगा नसीमा । अल्‍लाह इतना निर्दयी नहीं है । वही सब का भला करता है । लेकिन तुम्‍हारा यह हाल .... ' एक फीकीं मुस्‍कान नसीमा के मुख पर आई और विलीन हो गई । मैं और कुरेदना नहीं चाहा । नसीमा की मां ने बताया ‘बेटा तीन दिनों से ये कुछ मुंह में नहीं ली है । मैं कहती हूं तो कहती है बस छोड़ देा ना अब मै मूक्‍ति चाहती हूं ' बता बेटा कैसे मैं छोड़ दूं इसे ।
मैने काफी मनुहार के बाद उसे एक गिलास फल का रस पिलाया और दो घंटे उसके घर में रहकर वापस आया । उधर काफी व्‍यस्‍तता के बावजूद दो तीन बार मैं नसीमा को देख आया । डाक्‍टारों का इलाज चल रहा था । लेकिन स्‍वास्‍थ्‍य में कोई सुधार नहीं हो रहा था । डाक्‍टर भी भगवान भरोसे उसका इलाज कर रहे थे । इस आन जाने के क्रम में नसीमा की मां ने बताया कि ससुराल में नसीमा पर किस-किस तरह के जुल्‍म ढाये गए । किस तरह उसके साथ मारपीट की गई । दोनों वक्‍त ठीक से खाना तक नहीं दिया गया उसे । जिसके कारण वह अंदर - अंदर टुट चुकी थी । भावुक तो वह थी हीं । उस हादसा का उसके दिल पर गहरा असर पड़ा ।
एक सप्‍ताह बाद जब मै पुनः नसीमा के पास गया तो वह अन्‍य दिनों के वनिस्‍पत ज्‍यादा दुःखी थी । डेढ़ वर्षीया नेहा को अपने सीने से लिपटाये वह रो रही थी
वह लेटी हुई थी । और उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे । मैं ज्‍योंही उसके कमरे में प्रवेश किया वह मेरे हाथ पकड़ कर उठने का प्रयास करने लगी लेकिन मैने उसे यों ही सोये रहने का संकेत किया । वह आंसू पोंछते हुए कही थी' भैया ! मैं रहूं या ना रहूं । उसका तो कोई ठिकाना नहीं । लेकिन मैं आपको बतला रही हूं मैं निहाल को नहीं भूल सकी । अंतिम समय में मैं उसे एक बार देखना चाहती थी । लेकिन यह संभव नहीं है । अंतिम समय में मैं कह रही हूं वह खुश रहे .. सदा खुश रहे .. हो सके तो मेरा ये पैगाम आप उस तक पहुंचा दीजिएगा .... यह कहते -कहते नसीमा के चेहरे पर जो ममतामयी छवी झलक आई । उसको देख कर मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । ‘कितनी महान है नसीमा; ? मैंने पल भर में सोच लिया । ऐसा लगने लगा कि फांसी पर लटकने से पूर्व ईसा मसीह की तरह ही नसीमा भी है जो उसे सलीब पर लटका रहा है वह उसे ही दुआ दे रही है ।
नसीमा कितनी उदार है .. कितने ममतामयी है, मेरा गला भर आया । मैं और उसके पास नहीं बैठ सका । फिर एक सप्‍ताह गुजर गया । मैं पुनः नसीमा को देखने का साहस नहीं जुटा पाया था । आज अचानक अख्‍तर दौड़ता हुआ आया और खबर दी कि नसीमा बाजी नहीं रही .. नसीमा बाजी चली गई । मैं घंटों
बैठकर रोता रहा । जैसे लग रहा था नसीमा कहीं उसी औफिस में खड़ी मुस्‍करा रही है .......

Monday, 18 August 2014

वह बरगद  पेड़  

गांव के बीच का 
वह बरगद का पेड़ 
उदास है आज। 
कभी -----
गांव के अच्छे -बुरे 
बक्तों का इतिहास 
बुनता रहा है वह पेड़। 
जुम्मन और अलगु की 
दोस्ती का गबाह 
गिरिजा और गुरुद्वारों में 
समन्यब्यता  का सूत्रधार 
आज बिस्मित है 
वह पेड़ ----------
शाम की गोधूलि बेला  में 
नहीं जमता है वहां 
कोई चौपाल 
ईद और दिवाली पर 
नहीं बांटती है 
वहां मिठाइयां 
ग्रीष्म की चांदनी रातों में 
नहीं बिछती है वहां 
अब-------------
अगल -बगल  में 
जुम्मन और अलग की चारपाइयां 
आखिर कियों। …?
वह बरगद का पेड़ 
नहीं समझ प् रहा है 
कइयों बढ़ गयी है 
यह दूरियां 
 


Saturday, 16 August 2014

कबिता 

१ 

रेगिस्तान के रेत पर 

दूर तक 
फैला हुआ 
रेगिस्तान .... . 
उस रेगिस्तान में 
कभी करकती धूप  में 
उमस ज्वाला 
कभी सर्द रातों में
 ठिठुरती   ठण्ड 
उफ़.……… 
उत्पीिरत  हम 
ब्यथित हो
 बहा रहें हैं आंसुओं की धार  

००० 
बहुत दिनों तक 
बेदना की बोझा ढोकर 
उस रेगिस्तान में 
आगे की ओर बढ़ता रहा
ठिठुरती  सर्द  में
धधकती आग में 
हंसकर जलता रहा। 
००० 
आँखों के आंसू सुख गए 
क्योंकि -------
पानी की जगह हमने 
आंसुओं का पण किया 
अपना हैं मांस खाकर 
जीबन का परतरं किया। 
००० 
रेगिस्तान के रेत पर 
दुख और बेदना का बोझा रखकर
 तिनका चूना --
तयिनका चून -चून कर 
सपनो का महल बनाया
परन्तु---------
एक हवा का झोंका आकर 
उस महल को तोर दिया 

००० 
अब हम----------
 उस रेगिस्तान में 
टूटे हुए खण्डरों के पास 
बैठा हूँ -------
वह हवा उधर से लौटेगी
 तो--------------------
 अपना महल मांग लूंगा


०००००    
   

Friday, 15 August 2014


कहानी 
सुखलाल 

नाम था उसका सुखलाल।पोपटी गाल.…झुर्रीदार चेहरा ,एक पुराना  काला  फटा -चिता कोर्ट ,चौड़ी  मोहरी वाली पायजामा और आँखों में लटका ऐनक कुल यही थी कुल उसकी पहचान। अपने ऐनक के सबंध वह कहा करता था की एक बार गांधी जी के साथ सत्याग्रह  में भाग ले रहा था ,तो बातों-बात  में उनोहोने  उनोहोने कहा था बापू तुम अपनी दृस्टि मुझे दे दो....उस समय बापू  कुछ बोले नहीं उनहोंने अपना यह ऐनक देते हुए कहा सुखलाल अभी तो मैं तुम लोगों के दृस्टि का उपयोग कर रहा हूँ तुम्हारा बाह्र्य और आंतरिक दृश्टि   ठीक है। तुम सब कुछ देख सकते हो !सोच सकते हो! हो सकता  है एक दिन तुम्हारे बाह्र्य दृस्टि के लिए इसका जरुरत पर जाये। .लो  इसे  रख लो..... । 
      मैं सकुचा गया और न चाहते हुए भी बापू की यह अमिट  धरोहर रखा लिया। आज यही धरोहर मेरी दृस्टि बन  गयी। नहीं तो जिसे दो बक्त का रोटी नसीब नहीं हो रहा वह भला एक ऐनक \कहां  से खरीद पाता। 

सुखलाल लाठी टेक कर चलता था और मांग मांगकर खाता था.
जब मैं पहली बार उससे मिला था तो उसकी उम्र ९० साल की थी  शहर के चौराहे पर बैठा था आँखों  हर आने जाने वालों को याचना भरी नजरों से  देखता  था  लेकिन किसी से कुछ मांगता नहीं   था। कुछ दयालु किस्म के लोग उसके आगे दो चार पैसे फ़ेंक  देते  थे जिस से वह किसी तरह गुजर कर लेता था। 
    मैं उस शहर में दो चार दिनों  के लिए आया था।  वापस आ रहा था तो सामने के बस स्टैंड पर खड़ा  होकर बस का इंतज़ार कर रहा था। शाम के पांच बज चुके थे लेकिन कोई गाड़ी नहीं मिल रही थी।  थक कर एक पेड़ के निचे चबूतरा पर बैठ गया।  थड़ी दूर बैठा उस बृद्ध के दुर्भाग्य के बारे में सोच रहा था .... जरूर उसके बच्चे होंगे  जो इस बृद्ध के बुढ़ापे का बोझ समझ कर निकल दिया होगा। आज-कल अक्सरहां ऐसी घटनाएँ होती है.
मैं मन हैं मन उस कृतघ्न बेटे -बेटी को कोश रहा था। धीरे -धीरे शाम घिरने लगी। मैं सोच रहा था अब घर वापस होने का बिचार त्याग कर वापस होटल में लौट जाऊं। तब तक वह बृद्ध उस चबूतरा के पास आकर बैतयह गया और भीख में मिले ७० पैसे गिन कर  पैकेट में रखते हुए बुद -बुड़ाने  लगा। 
          जिस बृद्ध को उस चुरहे पर भीख मंगाते देख कर उसके बारे में दो घंटा से उसके बारे में सोच रहा था उसे सामने पाकर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और उसके सामने बैठ करपुंछ  बैठा .... 
        …बाबाआप का बीटा -बेटी नहीं है जो इस बुढ़ापें कष्ट कर रहे हो ……।
          वह पहले मेरी ओर गौर से ऊपर निचे तक देखा। मैं पहली बार देखा उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी …. और दर्दों का अथाह सागर था। 
वह कुछ देर मेरी और देखता रहा उसके आँखों के कोर भींग गए।  मैं बारे गौर से अपने प्रश्नन से उस बृद्ध पर होने वाली प्रतिक्रिया का अध्य्यनं कर रहा था। बार-बार उसके चेहरे पर कई भाव  आ जा रहे थे। हठात वह मुझे अपनी और घूरते हुए देख कर संभल गया.…आ ……हाँ बेटा  है ना.…बहुत है.....  कई है..... तुम सब तो मेरे अपने बचे हो ना। 
     मैं मतलब नहीं समझा बाबा आप सब कुछ सही बताओ ना। 
     किया करोगे जान कर बेटा … यह सब समय का दस्तूर है..... लेकिन मैं यह दुख भी हंस कर झेल लेता ,लेकिन लोंगो का यह तिरस्कार …… नफरत ,घृणा …उफ्ह कित्तना भयानक है यह सब। 
      कुछ देर रुक कर वह घरी साँस ली फ्हिर कहने लगा ....काश। उसी समय  दफ़न हो गया होता .... लेकिन इस अधम को तो यह सब भोगना था। यह सब कहते हुए उसकी आँखों से आसुओं की धार बहने लगी। 
    मैं उस बृद्ध की इस रहस्यतमक बातों में कफ्ही उलझ गया। उस बृद्ध की अतीत जानने की उत्सुकता बढ़ती गयी। ठीक उसी समय मेरी बस आ गयी उसके बारे में और अधिक जानकारी पाने की उत्सुकता के बाबजूद मैं अपने पैकेट से ५० रूपये का एक नोट उसे थमते हुए बस पर जा बैठा।  
                 उस दिन मैं वहां से तो वापस आ गया लेकिन उस बृद्ध के बारे में और अधिक जानने की ब्यग्रता बढ़ती गयी।  बार -बार मेरे मानस पटल  पर उस दर्द से डूबा चेहरा ,आँखों  से ढुलकते आंसू और मेरे प्रस्न  से होने वाली प्रतिक्रिया का चित्र उभर रहा था। एक सप्ताह बाद पुनः मैं उस शहर जाकर उस बृद्ध से मिला और उसके बारे नमें जानकारी हासिल किया। उसका अतीत दर्दों से भरा हुआ था। वह बृद्ध न जाने कइयों मुझ से प्रभाबित हुआ और अपना पूरा अतीत खोल कर मेरे सामने रख दिया। 
            सन १९३६ में उसने आजादी की जंग लड़ी थी। उसी बर्ष जब वह जेल में था उसकी गर्भबती पत्नी भूख और अभाव से कल कवलित हो गयी थी मन ौिर बाप पहले गुजर गए थे जब वह जेल से छूट  कर आया तो एक किशोर बेटा और  बेटी रह गए थे उसके पत्नी का बिछुरना  उसके लिए भयानक त्रासदी थी इसके वाबजूद उसने हौसला नहीं खोया गुलामी की जंजीर तोड़ने  के लिए सब कुछ लुटाने के लिए तैयार  था     दोनों किशोर बच्चे  भी पिता के पद चींन्हों पर  चल परे। फिर किया किया-किया सितम न ढाये  गए  इस परिवार पर उसका बृतान्त सुन कर मैं हतप्रभ रह गया।
     गांधी का सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था। सुखलाल गांधी  के इस आंदोलन में भाग ले रहे थे उस समय उसका लक्ष्य था सत्य अहिंसा के बल  पर भारत से बिदेशी  हुकूमत को उखाड़ फेकना। लेकिन सुखलाल के दोनों बच्चों को सत्य अहिंसा के सिद्धांत पर भरोसा नहीं था दस्ता की जंजीर तोरने के लिए वे उग्र आंदोलन में भाग लेने लगे। दोनों किशोर बच्चे अपने हम उम्र बच्चों को साथ लेकर आंदोलन की रह पर उतर   पड़े     


    
         
       

  ुवा कवि जालाराम की कविताए वो रातें..... वो रातें अब कहाँ गई, जब पल भर में सो जाते थे वो सपने अब कहाँ गए, जब पल भर में रो जाते थे यादों का ...